आज हमारे जीवन की सबसे बड़ी समस्या ये ही है कि हम अपना भूत भविष्य और वर्तमान के बारे में सब कुछ जान लेना चाहते हैं। और जब हमें इन से जुड़ी कोई भी बात का पता चले तो उन बातों पर हम मंथन शुरू कर दिया करते हैं। और येही मंथन हमारा पूरा जीवन नष्ट कर देता है। एक बार जब हम अपने इस भविष्य को जानने और उसे सवारने के चक्रव्यूह में फंसते हैं तो फिर जीवन का शुकुन ही नहीं पुरी की पुरी जिंदगी ही समाप्त हो जाती है।
ये ऐसी एक इच्छा है जो छोटी हो या बड़ी हर स्थिति में हर इंसान के मन में होती है। जब हम अपने चारों तरफ़ नजर डालते हैं तो हमें क्या नजर आता है? येही न कि हर किसी के पास कोई न कोई कस्ट हैं और वो किसी न किसी बाबा, पंडित, ओझा या तांत्रिक के शम्परक में है। ये लोगों का कैसा अंधविश्वास है? जो हक़ीक़त और फरेब में कोई फर्क ही नहीं समझ पाते।
ऐसा नहीं है कि इस का उपयोग सिर्फ अशिक्षित या गाँव के लोग ही करते हैं। अंधविश्वास की जड़ें चारों तरफ़ फैली हुई है। पुरी दुनिया में इसकी पकर बहुत ही मजबूती से है। हां ये बात सही है कि अशिक्षित लोगों की तो शायद मजबूरी है कि वह बाहर की दुनिया को नहीं जानते हैं उनके पास दुनियां से जुड़ने का न तो समय हैं और न ही कोई समझ। उन लोगों को अपने पूर्वजों से जो मिला वे उन्हें अपना समझते हैं और उसी पे पूरा विश्वास भी करते हैं झाड़ फुक से इलाज और तंत्र मंत्र से वृद्धि इसे ही वो अपना सही जीवन समझते हैं और इसी पर पूर्ण विश्वास भी करते हैं।
लेकिन पढे लिखे लोग अच्छे समाज में उठने बैठने वाले लोगों की क्या परेशानी है उनके पास किस चीज़ की कमी है। न तो ग्यान की कोई कमी और न ही किसी तरह की कोई जानकारी की। उनके पास वो सारे साधन मौजूद है जिनसे वो सही गलत का फर्क कर सकते हैं। फिर भी न जाने क्यों कभी अपने लिये तो कभी अपनो के लिए, कभी अच्छी कमाई तो कभी अच्छी स्वास्थ के लिए कभी संतान के लिए तो कभी संतान के भविष्य के लिए कभी न कभी तो कहीं न कहीं कीसी न कीसी अन्धविश्वास से जुड़ ही जाते हैं।
हाल ही की घटना है दिल्ली के बूरारी में एक ही परिवार के 11 सदस्यों ने अंधविश्वास में आकर फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। घटना स्थल पर मिली दो डायरी जिसे तकरीबन 11 सालों से लिखी जा रही थी।इसमें एक 200 पन्नों की डायरी थी जिसमें 1जुलाई को क्या और कैसे करना है सो लिखा था। और उसी के तहत सब कुछ हुआ। वह परिवार पढ़ा लिखा समझदार था समाज में उनका अपना एक स्थान था। फिर भी ऐसा क्या था कि इतने शिक्षित लोग विश्वास से सीधे अंधविश्वास तक कैसे पहुंच गया? क्या पिता के मौत के सदमे में था भाटिया परिवार? केहते हैं ये परिवार थोड़े धार्मिक किस्म के थे। लेकिन धार्मिक होने का ये मतलब कतई नहीं है कि हम विश्वास और अंधविश्वास में फर्क ही न कर सके। कैसा परिवार था सबकी मानसिकता भी एक हो गयी थी, इससे तो एक ही बात याद आती है की “विनाश काले विपरीत बुद्धि” ऐसा कभी हुआ है कि किसी इंसान की स्वाभाविक मृत्यु के बाद वो फिर अपने परिवार के किसी सदस्य के पास आया हो और उनकी तरक्की का रास्ता भी बताता हो सारे दुखों को दूर करने के बाद अपने पूरे परिवार को एक साथ मौत की सजा सुना दे।
ये मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है। इसमें कोइ दो राय नहीं है कि श्री ललित भाटिया जी एक मानसिक रोगी थे और उनका सही समय पर इलाज न होने के कारण पूरे परिवार को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। और आज के समय में ऐसे मानसिकता वाले लोगों का सही समय पर इलाज होना बहुत जरूरी है क्यूँकि ऐसे लोग परिवार के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे समाज और देश के लिए एक बड़ी समस्या की तरह है।
ऐसा नहीं है कि ये समस्या सिर्फ हमारे देश भारत की ही हैं बल्कि अंधविश्वास पूरी दुनिया में किसी भयंकर बीमारी की तरह फैली हुई है तब ही तो आज कल लोग बीज्ञान पर कम और बाबाओं पर अधिक विश्वास करते हैं।
ये हर इंसान की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को विश्वास और अंधविश्वास का अंतर बताए। जो भी भटके हुए हैं उनको बताये की विश्वास एक आस्था हैं जो करना चाहिए वहीं पर बिना परिणाम सोचे समझे किसी पर अंधविश्वास करना एक तरह का रोग है जिसका उपचार होना चाहिए।